मातृभाषा, नारी शक्ति और शुतुरमुर्ग मानसिकता [The Era Of Ostrich Mentality]

Gaurav Sinha
5 min readMar 6, 2024

क्या आप को कोई भी गलती स्वीकारने में झिझक होती है? स्वीकारना तो दूर आप उसे सुनते ही नहीं। सूर्यकुमार यादव की तरह फ्लिक करके विकेट कीपर के ऊपर से बाउंडरी के बाहर पहुँचा देते हैं। और चारों तरफ से तालियों की शोर में वो गलती क्रिकेट बॉल की तरह गुम हो जाती है।

क्या आप कोई नेगेटिव खबर सुनते ही उसको ठीक वैसे ही डिफ़ेंड करते हैं जैसे राहुल द्रविड़ टेस्ट मैच के पाँचवे दिन बॉलर्स को किया करते थे? मजाल है कोई आपके पॉज़िटिव माइंडसेट को क्लीन बोल्ड कर सके।

क्या आप वीमेंस डे का इंतज़ार करते हैं नारी की महानता को स्वीकार करने के लिए? और अगले दिन भूल जाते हैं कि वो एक बराबर दर्जे की इंसान भी है ?

क्या आप किसी ऐसे व्यक्ति के आगे इंग्लिश बोलकर खुद को बड़ा समझते हैं जो आपके सामने लगातार हिन्दी में बात कर रहा हो? वो अलग बात है कि नॉन हिन्दी भाषी प्रदेशों में जब लोग हिन्दी नहीं बोलते तब आप उन्हें अपनी मदर टंग के अलावा हिन्दी सीखने की नसीहत देना नहीं भूलते।

मुबारक हो आप बिलकुल सही करते हैं। आप एरा ऑफ ऑस्ट्रिच मेंटेलिटी (यानि शुतुरमुर्ग मानसिकता वाले दौर) में अपने आसपास के लोगों से कहीं आगे हैं। सही मायने में विकास आपने ही किया है। बाकी लोग जो अभी तक ऐसा करना नहीं सीख पाये हैं, उन्हें बहुत कड़ी मेहनत करने की जरूरत है। तभी वो इस अमृतकाल वाले युग का सही आनंद लेने लायक बन पाएंगे।

एक एक पॉइंट पर बात करते हैं वरना बात ठीक वैसे ही उलझ जाएगी जैसे आजकल किसी भी टॉपिक में उलझ जाती है। क्यूंकी हमारे संवाद कब वाद-विवाद के रास्ते होते हुए, बहस, चीखने चिल्लाने और फिर फाइनली मुँह फुलाकर बैठ जाने तक पहुँच जाते हैं। वो किसी से छिपा थोड़े ही है। कितने ही ग्रुप्स में इसी चक्कर में बातें बंद हैं। कभी खुलकर लोग अपने मन की बात कर दिया करते थे। जोक्स भेज दिया करते थे। अब गुड मॉर्निंग और शुभ रात्री के अलावा कुछ भेजना हो तो डर होता है कि हमारी वजह से किसी का मुँह न फूल जाये।

मातृभाषा

मातृभाषा यानि जिसमें घर में बात चीत होती हो, या जिस भाषा में बोलना सीखा हो। अपनी हिन्दी थी, पर अब वक़्त के साथ हिंगलिश हो गई। अभी कुछ ही दिनों पहले मदर लैंगवेज़ डे भी था, और हाल फिलहाल जितने पॉडकास्ट रिकॉर्ड किए, सब में कहीं न कहीं भाषा के बारे में कुछ न कुछ बात हो ही गई। क्या बातें हुई उसके लिए पॉडकास्ट सुनिए। हाँ एक छोटा सा किस्सा बताने लायक है, क्यूंकी उसमें शुतुरमुर्ग है।

A Clip from the Podcast Episode Titled “Stop Judging Book By Its Cover | Overcoming Judgements with Nitya Shukla

बातचीत के दौरान अच्छी सी लाइंस कही हमारी गेस्ट ने “ये भाषा मुफलिस नहीं है दोस्त, बस प्यार को तरस रही है, हिन्दी चलन में नहीं तो क्या हुआ दिलों में तो बस रही है” । उसपर एक शुतुरमुर्ग का तड़कता भड़कता कॉमेंट आया, किसने कहा चलन में नहीं है, और भी कुछ था पर यूट्यूब का आर्टिफ़िश्यल इंटेलिजेंस एल्गॉरिथ्म उस शुतुरमुर्ग के ज्ञान को समझ नहीं पाया और स्पैम समझकर हाइड कर दिया। बाद में मैंने भी उसे पढ़कर इसलिए डिलीट कर दिया कि कहीं इतनी समझदारी वाली बात पढ़कर बाकी के लोग जो अभी शतुरमुर्ग कैटेगरी में नहीं आ पाये हैं। बेफिजूल में गिल्टि फील न करने लगें।

और भी किस्से कहानियाँ और आप बीती सुनाई हमारे गेस्टस ने पर वो आम लोगों वाली बातें है तो यहाँ लिखना बेकार। अगर मन हो तो सुन सकते हैं फुर्सत में । हाँ कॉमेंट लिखते वक़्त शुतुरमुर्ग न बने वरना आर्टिफ़िश्यल इंटेलिजेंस गड़बड़ कर सकता है। (The Creative Zindagi Podcast — YouTube / Spotify )

रही बात मातृ भाषा की तो मेरे हिसाब से तो हम सब रेसिस्ट हैं। फिर चाहे दक्षिण में हिन्दी आते हुए भी न बोलने वाले शुतुरमुर्ग या इधर जहाँ हिन्दी से काम चल सकता हो वहाँ फर्राटेदार अँग्रेजी बोलने वाले एडवांस्ड शुतुरमुर्ग। और ये गुणी लोग हैं। आपको भी सीखना चाहिए, रेसिस्ट होना, लॉजिक का दुश्मन होना चलन में है। क्रिटिकल थिंकिंग चाहे कम हो रही हो, पर हमें परेशान नहीं होना है। बात बात पर क्रिटिकल लेवेल पर बीपी हाई करके गुस्सा होने की आदत तो बढ़ ही रही है। तो इस तरह बैलेन्स बना हुआ है और बैलेन्स जरूरी है।

नारी शक्ति।

दूसरी बात “नारी शक्ति”, अब इस पर कुछ लिखना मुझ जैसे कम अक्ल वाले इंसान के लिए इस शब्द की तौहीन करना है। इसके बारे में तो अभी इसी हफ्ते इंटरनेशनल वीमेंस डे (यानि विश्व महिला दिवस) पर थोक के भाव में विचार आएंगे। कोई लिख देगा दिवस तो कमजोर के बनते हैं, तो कोई महिमा मंडन कर देगा । नारी देवी है, काली है, दुर्गा है। बातें सभी सही है और सबको कहने का हक भी है। पर ज़माना तो शुतुरमुर्गों का है तो उसी प्रजाति के इन्सानों पर गौर करेंगे अपन तो।

Looking at the engagement and replies, seems like we still have few folks who think critically.. not a good sign :)

This is the real issue. The ostrich mentality has become our first line of defence. The first step is accepting the wrong, and we can’t move past this step. WhatsApp and Whatabotism has killed critical thinking, at least for a large chunk of the population.

- Gaurav Sinha 🇮🇳 (@garv5137) March 6, 2024

शुतुरमुर्गों की एक खास बात ये है की वो जेंडर स्पेसिफिक नहीं है। तो या न समझें कि मैं सिर्फ मर्दो के बारे में बोल रहा हूँ। अभी कुछ ही दिनों पहले देश में एक उच्च पद पर बैठी महिला, जिनको महिलाओं के कल्याण और उनपर हो रहे अत्याचार पर नज़र रखने का जिम्मा सोंपा गया है। उन्होने शुतुरमुर्ग होने का शानदार प्रदर्शन किया जब उन्होने एक शर्मनाक घटना को देश की इमेज से जोड़कर देश को भारी बदनामी से बचा लिया । और कम अक्ल वाले लोग अपने ही देश की बुराई करने में बिज़ी थे । ऐसे ही नहीं ये एरा ऑस्ट्रिच मेंटेलिटी का है । अगर आपको तरक्की की सीढ़ियाँ जल्दी चढ़नी हैं तो थोड़ा डिवैलप कीजिये ये मानसिकता ।

शुतुरमुर्ग

अब इतना कुछ तो लिख ही दिया है शुतुरमुर्ग पर । अगर आपने स्कूल में ध्यान से पढ़ाई की हो तो आप जानते ही होंगे। ये सबसे तेज़ पक्षी है जो उड़ता नहीं है। पर भागने में इसका सामना बाकी के जानवर भी नहीं कर सकते । मतलब जितनी स्पीड में गाड़ी चलाने के लिए आपको हाइवे तक जाना पड़ेगा उतना तेज़ ये दौड़ लेते हैं। एक कमाल की बात ये भी है कि ऑस्ट्रिच यूँ तो ऑस्ट्रेलिया का नेशनल बर्ड है। पर अगर ऑस्ट्रिच मानसिकता की बात की जाये तो हमने ऑस्ट्रेलिया को कहीं पीछे धकेल दिया है। हम सबको इस उपलब्धि पर गर्व होना चाहिए। हाँ, अगर आप क्रिटिकल थिंकिंग को अभी तक खत्म नहीं कर पाएँ हैं अपने अंदर से, तो आपको कोई हक नहीं अपनी पीठ थपथपाने का । पहले शुतुरमुर्ग की तरह मुसीबतों से बचना सीखिये तभी आप देश की तरक्की में योगदान दे पाएंगे।

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Originally published at https://gauravsinhawrites.in on March 6, 2024.

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